बढ़ती हुई जनसंख्या के साथ भोजन की आपूर्ति के लिए मानव द्वारा खाद्य उत्पादन की होड़ में अधिक से अधिक फसल उत्पादन प्राप्त करने के लिए तरह-तरह के रासायनिक खाद, जहरीले कीटनाशकों को उपयोग, प्रकृति के जैविक और अजैविक पदार्थों के बीच आदान-प्रदान के चक्र को निश्चित रूप से प्रभावित करता है। जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति खराब हो जाती है साथ ही वातावरण भी प्रदूषित होता है और अंत में इसका दूष्प्रभाव मानव स्वास्थ्य पर पढ़ता है। चूंकि हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार कृषि है और कृषकों की मुख्य आय का साधन खेती करना है। अत: बढ़ती जनसंख्या को देखते हुए फसल उत्पादन बढ़ाना आवश्यक हो रहा है। इसलिए खेत में अधिक मात्रा में रासायनिक उर्वरक एवं कीटनाशक का प्रयोग कृषकों की मजबूरी होती जा रही है, परन्तु जल, भूमि, वायु और वातावरण को प्रदूषित होने से बचाने के लिए जैविक खेती ही अब एकमात्र विकल्प रह गया है।
इस क्रम में प्रस्तुत वृत्तान्त एक कर्मठ और दृढ़ सोच रखने वाले कृषक मंगलूराम कोर्राम (पिता हड़ोडी राम कोर्राम) के विषय में है विकासखण्ड फरसगांव के ग्राम भण्डारवण्डी (खासपारा) के निवासी मंगलूराम अपनी 08 एकड़ की पुस्तैनी भूमि में धान की काश्तकारी करते थे। मुख्यत: मरहान भूमि में उपजाये गये इस कृषि से अतिरिक्त आय का कोई प्रश्न ही नहीं था और अपनी सीमित आमदनी में वृद्धि करने के लिए मंगलूराम ने 20 वर्षों से जैविक खेती करके जिले के अन्य किसानों के समक्ष एक सराहनीय उदाहरण प्रस्तुत किया है। मंगलूराम का कहना है कि सर्वप्रथम उनके छोटे भाई का रूझान जैविक खेती के प्रति शुरू से ही था, इसके लिए उनके भाई ने हैदराबाद स्थित प्रशिक्षण संस्थान से जैविक खेती के संबंध में प्रशिक्षण लिया और केंचुआ खाद बनाने की तकनीक सीखी। वे आगे बताते हैं कि इस वर्मीकम्पोस्ट के उत्पादन के लिए केंचुओं को विशेष प्रकार के गढ्ढों में तैयार किया जाता है और इन केंचुओं के माध्यम से अनुपयोगी जैविक वनस्पतिक जीवांशों को अल्प अवधि में जैविक खाद निर्माण करके इसका उपयोग खेती में किया जाता है। केंचुओं की अधिक बढ़वार एवं त्वरित प्रजनन के लिए 30 से 35 प्रतिशत नमी होना आवश्यक है साथ ही उचित वातायन तथा गढ्ढे की गहराई का भी विशेष ध्यान रखना होता है। लगभग इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में तीन से चार माह का समय लगता है। गढ्ढे की उपरी सतह का काला होना वर्मीकम्पोस्ट के तैयार होने का संकेत है। वर्मीकम्पोस्ट तैयार होने के बाद इसे खुली जगह पर ढेर बनाकर छाया में सूखन देना चाहिए, परन्तु इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए की उसमें नमी बनी रहे। इसमें उपस्थित केंचुएं नीचे की सतह पर एकत्रित हो जाते हैं जिसका प्रयोग मदर कल्चर के रूप में दूसरे गढ्ढे में डालने के लिए किया जा सकता है।
अपने द्वारा तैयार किये गये जैविक खाद निर्माण तथा गौमूत्र से फसलों में लगने वाले कीड़ों को नष्ट करने की विधि के बलबूते आज मंगलूराम धान की विभिन्न प्रजातियों जैसे ‘जीरा फूल, श्रीराम, जवाफूल, सीताचोरी, अरूण एचएमटी’ की विभिन्न किस्मों का उत्पादन सफलतापूर्वक कर रहे हैं। इसके साथ ही वे ‘कूल्थी, मंडिया एवं कोसरा’ जैसे मोटे अनाज एवं साग-सब्जी भी उगा रहें है। वे मानते हैं कि जैविक खेती से न केवल भूमि की उपजाऊ क्षमता और सिंचाई अंतराल में वृद्धि होती है, बल्कि रासायनिक खाद पर निर्भरता कम होने से लागत में भी कमी आती है। जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए कृषि विभाग द्वारा उन्हें आत्मा योजना के तहत् 90 हजार का चेक भी प्राप्त हुआ है और उन्हें इस संबंध में प्रशिक्षण हेतु ‘रिर्सोस पर्सन’ के रूप में भी आमंत्रित किया जाता है। मंगलूराम इसके साथ ही गांव के अन्य किसानों को भी जैविक खेती के फायदों के बारे में सलाह देते हैं और किसानों को खाद, बीज एवं जैविक दवाइयों एवं जड़ी-बूटी खाद की उपलब्धता सुनिश्चित करने में भी मदद करते हैं।