ड्राई फ्र्टूस काजू में पोटैशियम, कॉपर, जिंक, सीलियम, आयरन, मैगनीशियम आदि पाए जाते हैं। काजू हड्डी मजबूत करने, दिल की बीमारियों में, याददाश्त तेज करने में और ब्लड प्रेशर को नियंत्रण करने में सहायक होता है। इसके अलावा मिठाईयों में यदि काजू का इस्तेमाल हो तो उसकी कीमत कई गुना बढ़ जाती है। कहा जाता है कि इसके एक पौधे से आपको 8 किलो तक नट मिल जाएगा। काजू के फल को तोड़ा नहीं जाता, बल्कि सिर्फ गिरे हुए फल को जमा किया जाता है। फिर इसे धूप में सुखा कर बोरों में भरकर रखा जाता है। हमारे देश में काजू गोवा, केरल, महाराष्ट्र, तामिलनाडु, आंध्र प्रदेश, बंगाल, उड़ीसा एवं कर्नाटक में प्रमुखता से की जाती है। काजू की प्रमुख किस्में टी.-40 , बी.पी.पी.-1, बी.पी.पी.-2, वेगुरला-4, उल्लाल-2, उल्लाल-4 आदि हैं। काजू गर्म जलवायु की फसल है। इसलिए यह उष्णकटिबन्धीय क्षेत्रों में बहुतायत में होता है। लेकिन जहां पाला पड़ता है और अच्छी ठंड रहती है, वहां इसकी फसल प्रभावित हो सकती है। माना जाता है कि 700 मी. ऊंची जगह जहां तापमान 200 सें.ग्रे. से ज्यादा होता है वहां काजू की खेती अच्छी होती है। काजू की खेती के लिए किसी खास प्रकार की मिट्टी की आवश्यकता नहीं होती है, लेकिन यदि अच्छा उत्पादन चाहिए तो समुद्र तटीय वाले लाल और लेटराइट मिट्टी उपयुक्त माना गया है। काजू की खेती का सबसे अच्छा समय वर्षा का समय होता है। इसके रोपण के बाद थाला बनाना चाहिए। थालों में सूखी घास भी बिछा देना चाहिए जिससे पानी संरक्षण भी हो सके। काजू के पौधे को 700-800 सेंटीमीटर के दूरी पर वर्गाकार तरीके से लगाना चाहिए। गड्ढे के पास पानी जमा न हो और दो पौधे के बीच की दुरी 4 गुणा 4 या 5 गुणा 5 मीटर हो। काजू के पौधों में कीट नियंत्रण और रोग नियंत्रण के लिए समय-समय पर कृषि विशेषज्ञों से सलाह लेकर उचित देखभाल करनी चाहिए, नहीं तो फसल प्रभावित हो सकती है।