रबी फसल की श्रेणी में आने वाला कुसुम बहुउपयोगी है। इसलिए इसकी खेती की ओर किसान आगे बढ़ रहे हैं। खरीफ की दलहनी फसलों के बाद द्वितीय फसल के रुप में जैसे सोयाबीन, मँंग, उड़द या मँगफली के बाद रबी में द्वितीय फसल के रूप में कुसुम को उगाया जा सकता है। तो आइए आज जानकारी लेते हैं कुसुम की खेती के बारे में…

1. मिट्टी

कुसुम फसल की जड़ें बहुत गहरी जाती हैं, इसलिए इसकी खेती के लिए काली मिट्टी उपयुक्त है। कुसुम का अच्छा उत्पादन मध्यम काली मिट्टी से भारी काली मिट्टी में होता है। इसलिए बोने से पहले मिट्टी का चयन अवश्य करें। जहां ऐसी मिट्टी हो वहीं कुसुम की फसल ली जा सकती है।

2. किस्में

कुसुम की प्रमुख किस्मों में एन.ए.आर.आई-6, जे.एस.एफ – 1, जे.एस.आई. -7, जे.एस.आई -73 है।

3. बोआई का समय

कुसुम फसल बोने का उपयुक्त समय सितम्बर माह के अंतिम से अक्टूबर माह के प्रथम सप्ताह तक है। इसके साथ ही यदि आप खरीफ में इसकी बोनी करते हैं तो बोआई का समय का खास ध्यान देना होता है।

4. बीजों का उपचार

किसी भी बीज को बोने से पहले उसका उपचार करना आवश्यक है, ताकि फसल अच्छी और उच्च गुणवत्ता का हो। कुसुम को भी बोने से पहले उपचार करना जरूरी होता है। ताकि इसमें फफूंद न लगे। बीजों का उपचार करने हेतु 3 ग्राम थायरम या ब्रासीकाल फफंँदनाशक दवा प्रति एक किलोग्राम स्वस्थ्य बीज के लिये पर्याप्त है।

5.फसल बोआई की विधि

कुसुम की बोनी के समय कतार की दूरी 45 से.मी. या डेढ़ फुट रखना आवश्यक है। पौधे से पौधे की दूरी 20 से.मी. या 9 इंच रखना चाहिये। इससे फसलों का उत्पादन बहुत ही अच्छा होता है। और पौधों को बढ़वार में काफी मदद मिलती है।

6. सिंचाई

कुसुम वैसे तो सूखे में भी अच्छी तरह उग सकता है। लेकिन बीजों के उगने के समय सिंचाई का खास ध्यान देना चाहिए। अन्यथा फसल प्रभावित हो सकता है। वहीं यदि बीज एक बार उग आए तो सिंचाई की आवश्यकता नहीं के बराबर होती है। वहीं यदि सिंचाई उपलब्ध हो तो बढ़वार अवस्था और शाखा आने पर सिंचाई करना उचित होता है।

7. खरपतवार नियंत्रण

किसी भी फसल को खरपतवार से बचाना बेहद जरूरी होता है। इसलिए समय-समय पर इसकी फसल का निंदाई-गुड़ाई आवश्यक होता है। निदाई-गुड़ाई अंकुरण के 15-20 दिनों के बाद करना चाहिये।

8. कीटों से सुरक्षा

कुसुम फसल में सबसे ज्यादा माहो की समस्या रहती है। यह पत्तियों तथा मुलायम तनों का रस चूसकर नुकसान पहुँचाता है। इससे बचाव के लिए मिथाइल डेमेटान 25 ई.सी. का 0.05 प्रतिशत या डाईमिथियोट 30 ई.सी. का 0.03 प्रतिशत या ट्राइजोफास 40 ई.सी. का 0.04 प्रतिशत घोल बनाकर छिड़काव करें।

इसके अलावा कुसुम की फसल में फल छेदक इल्ली का प्रकोप भी देखा गया है। इसलिए इससे सुरक्षा के लिए इंडोसल्फान 35 ई.सी. का 0.07 प्रतिशत या क्लोरपायरीफास 20 ई.सी. का 0.04 प्रतिशत या डेल्टामेथ्रिन का 0.01 प्रतिशत घोल बनाकर छिड़काव करें।

9. रोगों से रोकथाम

वैसे तो कुसुम की फसल में रोगों की कोई विशेष समस्या नहीं होती है। लेकिन बार-बार एक ही फसल लेने से कुछ रोगों का प्रकोप देखा गया है। अत: उचित फसल चक्र अपनाना और बीज उपचारित कर बोने के साथ ही स्वच्छता का खास ध्यान रखा जाए तो कुसुम में रोगों की रोकथाम की जा सकती है।

10. सडऩ रोग

कुसुम की फसल में, खासकर जब पौधे छोटे हों तो सडऩ बीमारी देखने में आती है। इसलिए इसकी रोकथाम के लिए बीजोपचार आवश्यक है।

11. गेरुआ रोग

कुसुम की फसल में गेरुआ रोग होने पर डायथेन एम 45 नामक दवा, एक लीटर पानी में तीन ग्राम मिलाकर फसल पर छिड़काव करके रोकथाम कर सकते हैं।