वैसे दलहनी फसलों में चने और अन्य दालों का नाम आता है। इसमें भी यदि उत्तरप्रदेश में दलहनी फसलों की बात करें तो यहां चने के  बाद अरहर का नंबर आता है। यहां इसकी उत्पादकता अखिल भारतीय औसत से ज्यादा है। सघन पद्धतियों को अपनाकर इसे और बढ़ाया जा सकता है।
अरहर की खासियत यह है कि यह अकेली या दूसरी फसलों के साथ भी बोई जा सकती है। ज्वार , बाजरा, उर्द और कपास, अरहर के साथ बोई जाने वाली प्रमुख फसलें हैं।
अरहर की खेती के लिए बलुई दोमट और दोमट भूमि अच्छी होती है। इसके अलावा जल निकासी की पर्याप्त व्यवस्था होनी चाहिए तथा हल्के ढालू खेत अरहर के लिए सर्वोत्तम होते हैं। ध्यान रहें लवणीय तथा क्षारीय भूमि में इसकी खेती सफलतापूर्वक नहीं की जा सकती है।
अरहर की फसलें की कई किस्में देर से पकती हैं, इसलिए इसकी  बुआई जुलाई के महीने में की जा सकती है। वहीं जल्दी पकने वाली अरहर को इससे एक महीने पहले यानी जून में बोया जा सकता है। जिससे यह फसल नवम्बर के अन्त तक पक कर तैयार हो जाए। इसके साथ ही मेड़ों पर बोने से अच्छी उपज मिलती है।
खेत में कम नमी की अवस्था में एक सिंचाई फलियां बनने के समय अक्टूबर माह में अवश्य कर देनी चाहिए। देर से पकने वाली प्रजातियों में दिसम्बर या जनवरी माह में सिंचाई करना उचित है।
इसके अलावा अरहर की फसलों में कीट प्रकोप की भी आशंका रहती है। इसमें मुख्यत : पत्ती लपेटक कीट, फली की मक्खी, चने का फली बेधक कीट जैसे कीट जल्दी पनपते हैं, इसलिए कृषि वैज्ञानिकों की सलाह के अनुसार इसमें समय-समय कीट नियंत्रण के उपाय भी करने चाहिए। ताकि अरहर की खेती से अच्छा उत्पादन हो सके।