पेशे से इलेक्ट्रिकल इंजीनियर दीपक गोयल एक दशक पहले तक अमेरिका में एक कम्पनी से अच्छी खासी नौकरी छोड़कर मध्यप्रदेश के खरगोन जिले के अपने गाँव सुन्द्रेल में खेती करने के इरादे से आ गये। उन्होंने सुन्द्रेल की पथरीली पहाड़ी पर बाँस की हरी भूमि करने के लिये पहाड़ी के आस-पास के क्षेत्र की मुरुमी-पथरीली भूमि को खेती के लायक बनाने के लिये दिन-रात मशक्कत की। नतीजा यह कि अब बाँस-रोपण और बाँस आधारित उद्योग के जरिये न केवल उनका परिवार आर्थिक रूप से समृद्ध हुआ, बल्कि बाँस-रोपण की देख-रेख के लिये 30 परिवारों को जोडऩे के अलावा बाँस काड़ी से अगरबत्ती बनाने की 2 इकाइयों में 70 महिलाओं को भी रोजगार उपलब्ध करा रहे हैं।
इंजीनियर दीपक गोयल को अपनी संगिनी शिल्पा गोयल के साथ प्रदेश लौटते वक्त बाँस की खेती से जुडऩे का ख्याल नहीं आया था। उन्होंने यहाँ आकर सबसे पहले फल उद्यानिकी के कार्य को हाथ में लिया। इसके बाद उनके दिमाग में बाँस प्रजाति का उपयोग कर अपनी और क्षेत्र की तस्वीर और तकदीर बदलने का जुनून सवार हो गया। गोयल दम्पत्ति ने विभिन्न राज्यों में जाकर बाँस की खेती और इससे जुड़े उद्योगों की बारीकियों को समझा। फिर उन्होंने प्रदेश के वन विभाग के अधिकारियों से सम्पर्क किया।
दो साल पहले गोयल दम्पत्ति ने बाँस मिशन से सब्सिडी प्राप्त कर बड़े पैमाने पर टुल्ड़ा प्रजाति के बाँस के पौधे त्रिपुरा से लाकर रोपित किये। गोयल दम्पत्ति द्वारा भीकनगाँव के ग्राम सुन्द्रेल, सांईखेड़ी, बागदरी और सनावद तहसील के ग्राम गुंजारी में तकरीबन 150 एकड़ एरिया में बाँस का रोपण किया गया। इन्होंने बाँस मिशन योजना में सब्सिडी प्राप्त कर पिछले साल बाँस की काड़ी से अगरबत्ती बनाने की दो इकाई भी प्रारंभ की। इस वक्त इन इकाईयों में 70 महिलाओं को सतत रूप से रोजगार मिल रहा है। अपने अनुभव साझा करते हुए दीपक गोयल ने बताया कि किसानों को इस गलतफहमी को दिमाग से निकाल देना चाहिये कि बाँस के रोपण के बाद अन्य नियमित फसलें नहीं ली जा सकती। उन्होंने स्वयं बाँस-रोपण में इंटरक्रॉपिंग के रूप में अरहर, अदरक, अश्वगंधा, पामारोसा आदि फसलों का उत्पादन प्राप्त किया है। उनका कहना है कि इंटरक्रॉपिंग से कुल लागत में कमी आती है और खाद तथा पानी से बाँस के पौधों की बढ़त काफी अच्छी होने से समन्वित रूप से सभी फसलों में लाभ प्राप्त करना सहज मुमकिन है।
मध्यप्रदेश राज्य बाँस मिशन बाँस के पौधे लगाने पर हितग्राही को 3 साल में प्रति पौधा 120 रुपये का अनुदान देता है। इसमें किसान की लागत बेहद कम आती है। खासियत यह भी है कि इस फसल पर कोई बीमारी या कीड़ा नहीं लगता, जिससे महँगी दवाएँ और रासायनिक खाद के उपयोग की जरूरत भी नहीं पड़ती।
दीपक गोयल ने बताया कि हर साल बाँस की फसल से प्रति हेक्टेयर तकरीबन ढाई हजार क्विंटल बाँस के पत्ते नीचे गिरते हैं, जिससे उच्च गुणवत्ता की कम्पोस्ट खाद बनाई जाती है। इससे खेत की जमीन की उर्वरा शक्ति को सशक्त बनाया जा सकता है।
दीपक गोयल ने अपने अनुभव के आधार पर दावा किया है कि बाँस की खेती से कम रिस्क और ज्यादा मुनाफा मिलता है। उन्होंने किसानों से अपील की है कि अपने खेत के 10 फीसदी हिस्से में बाँस के पौधे जरूर रोपित करें।